संविधान के मूल तत्व
भारत के लोगों ने भारत को सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणतंत्र बनाने का संकल्प लेकर नवम्बर, 1949 के 26वें दिन को संविधान को अंगीकार किया था, अधिनियमित किया था और स्वयं को दिया था। भारत का संविधान ऐसा दस्तावेज है, जिस पर भारत सरकार के आधार की संरचना की गई है। यह लिखित और विश्व में सबसे बड़ा संविधान है। इसके अंगीकरण के समय, उसमें 395 अनुच्छेदों और 8 अनुसूचियों को शामिल करते हुए 22 भाग अन्तर्विष्ट थे। वर्ष 1951 में संविधान का पहली बार संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951 द्वारा संशोधन किया गया था और संविधान को संशोधित करने की प्रक्रिया बदलते समय की आवश्यकता और अपेक्षा तथा देश के लोगों की आकांक्षाओं के अनुसार उसके उपबन्धों को ढालने के लिए अक्षुण्ण है । अब तक इसे एक सौ पांच संविधान (संशोधन) अधिनियमों और बयालिस अन्य संशोधनकारी अधिनियमों और आदेश द्वारा संशोधित किया गया है। भाग 4-क, भाग 9-क, भाग 9-ख और भाग 14-क अन्तःस्थापित किए गए हैं और भाग 7 का निरसन किया गया है, इसी तरह कई अनुच्छेद अन्तःस्थपित और निरसित किए गए हैं। चार अनुसूचियाँ भी जोड़ी गयी हैं । अब इसमें 460 अनुच्छेदों और बारह अनुसूचियों को शामिल करते हुए पच्चीस भाग अन्तर्विष्ट हैं । अनुच्छेद 5, 6, 7, 8, 9, 60, 324, 366, 367, 379, 380, 388, 391, 392, 393, और 394 दिनांक 26 नवम्बर, 1949 को प्रवृत्त हुए और अन्य अनुच्छेद 26 जनवरी, 1950 को प्रवृत्त हुए। अन्तःस्थापित अनुच्छेद विभिन्न अन्य तारीखों को प्रवृत्त हुए ।
यद्यपि भारतीय संविधान की विरचना भारतीय सामाजिक व्यवस्था को दृष्टि में रख कर की गयी थी, फिर भी यह सार्वभौमिक मानव अधिकार घोषणा, 1948, अन्तर्राष्ट्रीय सिविल और राजनैतिक अधिकार प्रसंविदा, 1966, अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार प्रसंविदा, 1966, अन्तर्राष्ट्रीय मूलवंश विभेदीकरण के सभी रूपों का उन्मूलन अभिसमय, 1966 में अधिकथित सिद्धान्तों को तथा अन्य मानव अधिकार सिद्धान्तों और मतों का अनुसरण करता है ।
उद्देशिका
संविधान की उद्देशिका अत्यधिक सावधानी और विचार विमर्श से विरचित की गयी है, यह संविधान निर्माताओं के उच्च प्रयोजन और महान उद्देश्य को प्रकट करती है । यह संविधान की आत्मा है। यह इस घोषणा को अन्तर्विष्ट करती है कि “उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए और उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए।” वर्ष 1976 में इसका शब्दों ” प्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य” के लिए शब्दों ” सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य” को प्रतिस्थापित करने के लिए और शब्द ” राष्ट्र की एकता” के लिए शब्दों “राष्ट्र की एकता और अखण्डता ” को प्रतिस्थापित करने के लिए संशोधन किया गया था।
भारत संघ
संविधान का अनुच्छेद 1 अधिकथित करता है ” इण्डिया अर्थात् भारत” राज्यों का संघ होगा। वर्तमान में भारत 28 राज्यों और 8 संघ राज्य क्षेत्रों का संघ है। राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों के नाम प्रथम अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं। उत्तरांचल (अब उत्तराखण्ड), झारखण्ड और छत्तीसगढ़ वर्ष 2000 में निर्मित किये गये थे, जबकि तेलंगाना वर्ष 2014 में निर्मित किया गया था। भारत के राज्य क्षेत्र में राज्यों के राज्य क्षेत्र, संघ राज्य क्षेत्र और ऐसे अन्य राज्य क्षेत्र, जो समय समय पर अर्जित किये जाएं, समाविष्ट होंगे ।
नागरिकता
संविधान के अधीन, केवल एक अधिवास अर्थात् देश का अधिवास है और राज्य के लिए कोई पृथक अधिवास नहीं है। अधिवास के सामान्य अर्थ में इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति का भारत में किसी स्थान में स्थायी गृह होना चाहिए । अनुच्छेद 6 से 10 कुछ व्यक्तियों के, जिन्होंने पाकिस्तान से भारत को प्रव्रजनन किया है, नागरिकता के अधिकार, पाकिस्तान को प्रव्रजनन करने वाले कुछ व्यक्तियों के नागरिकता के अधिकार, भारत के बाहर रहने वाले भारतीय उद्भव के कुछ व्यक्तियों के नागरिकता के अधिकार, विदेशी राज्य की नागरिकता स्वेच्छा से अर्जित करने वाले व्यक्तियों का नागरिक न होना और नागरिकता के अधिकारों के बने रहने के सम्बन्ध में उपबन्ध करते हैं। भारतीय उद्भव के व्यक्ति, जो स्वेच्छा से विदेशी राज्य की नागरिकता अर्जित करते हैं, अब भारत के नागरिक नहीं है। अनुच्छेद 11 के अधीन भारतीय संसद को विधि द्वारा नागरिकता के अधिकार को विनियमित करने के लिए सशक्त किया गया है।
मूल अधिकार
मूल अधिकार आधारभूत अधिकार हैं और इसके अन्तर्गत व्यक्ति को प्रत्याभूत आधारभूत स्वतंत्रतायें हैं । अनुच्छेद 12 से 35 मूल अधिकारों के सम्बन्ध में प्रवधान करते हैं। मूल अधिकार प्रत्याभूत स्वतंत्रतायें हैं किन्तु ये स्वतंत्रतायें आत्यन्तिक नहीं हैं, वे न्यायिक रूप से प्रवर्तनीय हैं। मूल अधिकार विधिक अधिकारों से भिन्न हैं । विधिक अधिकार सामान्य विधि द्वारा संरक्षित और प्रवर्तित किये जाते हैं, इसके प्रतिकूल मूल अधिकार संविधान द्वारा संरक्षित और प्रत्याभूत किये जाते हैं। संविधान संशोधन (छियासिवां संशोधन) अधिनियम, 2002 द्वारा, अनुच्छेद 21क-शिक्षा का अधिकार – अन्तःस्थापित किया गया था।
मूल अधिकार हैं-
(1) समता का अधिकार [अनुच्छेद 14 से 18]
(2) स्वतंत्र्य-अधिकार [अनुच्छेद 19 से 21, 21क और 22]
(3) शोषण के विरुद्ध अधिकार [अनुच्छेद 23 और 24]
(4) धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार [अनुच्छेद 25 से 28]
(5) संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार [अनुच्छेद 29 और 30]
(6) सांविधानिक उपचारों का अधिकार [अनुच्छेद 32]
संविधान (चौवालिसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 के पूर्व, सम्पत्ति का अधिकार अनुच्छेद 31 के अधीन मूल अधिकार था किन्तु अब यह अनुच्छेद 300क के अधीन विधिक और संवैधानिक अधिकार है।
अनुच्छेद 13 सभी विधियों और प्रशासनिक कार्यवाहियों को, जो मूल अधिकारों को न्यून करती हैं, तथ्यत: अकृत और शून्य बनाता है ।
अनुच्छेद 14 सभी विधियों के समक्ष समता और विधियों के समान संरक्षण को प्रत्याभूत करता है । राष्ट्रपति और राज्यपाल समानता समादेश के अपवाद हैं।
अनुच्छेद 15 किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, या जन्म स्थान या इनमें से किसी के अधार पर विभेदीकरण को प्रतिषिद्ध करता है । यह अनुच्छेद संविधान (तिरानवेवाँ संशोधन) अधिनियम, 2005 द्वारा प्राइवेट शैक्षणिक संस्थानों को, चाहे सहायता पाने वाले हों या सहायता न पाने वाले हों, शामिल करते हुए शैक्षणिक संस्थानों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिए प्रवेश में आरक्षण का प्रावधान करने के लिए संशोधित किया गया था ।
अनुच्छेद 16 लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता के लिए उपबन्ध करता है।
अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता का अन्त करता है ।
अनुच्छेद 18 उपाधियों का अन्त करता है। किन्तु यह अन्य संस्थानों को उपाधी या सम्मान प्रदान करने से निवारित नहीं करता है ।
अनुच्छेद 19 वाक् स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति – स्वातंत्र्य, शान्तिपूर्वक और निरायुध सम्मेलन, संगम या संघ बनाने, भारत के राज्य क्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण और भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने, कोई वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारबार करने को प्रत्याभूत करता है ।
अनुच्छेद 20 उपबन्धित करता है कि कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिए तब तक सिद्ध दोष नहीं ठहराया जाएगा, जब तक उसने किसी प्रवृत्त विधि का अतिक्रमण नहीं किया है, किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दण्डित नहीं किया जायेगा, किसी अपराध के लिए अभियुक्त व्यक्ति को स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा ।
अनुच्छेद 21 प्रत्याभूत करता है कि किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतन्त्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जायेगा, अन्यथा नहीं ।
अनुच्छेद 21क छ: से चौदह वर्ष की आयु के सभी बालकों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के लिए उपलब्ध करता है।
अनुच्छेद 22 उपबन्धित करता है कि किसी व्यक्ति को, जो गिरफ्तार किया गया है, उसकी गिरफ्तारी के अधारों से अवगत कराया जायेगा, उसे अपनी रुचि के विधि व्यवसायी से परामर्श करने और प्रतिरक्षा कराने का अधिकार होगा और यह कि उसे उसकी गिरफ्तारी के 24 घण्टे में निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाना चाहिए।
अनुच्छेद 23 मानव के दुर्व्यापार और बलात्श्रम को प्रतिषिद्ध करता है।
अनुच्छेद 24 किसी कारखाना या खान में 14 वर्ष से कम आयु के बालक के नियोजन या किसी अन्य परिसंकटमय नियोजन में लगाने को प्रतिषिद्ध करता है ।
अनुच्छेद 25 लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए अन्तःकरण की स्वतन्त्रता और धर्म के अबाध मानने, आचरण करने और प्रचार करने का उपबन्ध करता है।
अनुच्छेद 26 धार्मिक कार्यों के प्रबन्ध की स्वतन्त्रता उपबन्धित करता है ।
अनुच्छेद 27 किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए करों को संदाय के बारे में स्वतन्त्रता प्रदान करता है ।
अनुच्छेद 28 राज्य द्वारा पोषित शिक्षा संस्थानों में धार्मिक शिक्षा को प्रतिषिद्ध करता है ।
अनुच्छेद 29 अधिकथित करता है कि नागरिकों को, जिनकी अपनी विशेष भाषा, नीति या संस्कृति है, उसे बनाये रखने का अधिकार होगा और राज्य द्वारा पोषित या राज्य निधि से सहायता पाने वाले शिक्षा संस्थान में प्रवेश से किसी नागरिक को धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इनमें से किसी आधार पर वंचित नहीं किया जायेगा ।
अनुच्छेद 30 अल्प संख्यक वर्गों को शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अधिकार प्रदान करता है।
अनुच्छेद 31क, 31ख और 31ग कुछ विधियों का, जो अन्यथा मूल अधिकारों के उल्लंघन में हो सकती हैं, विधिमान्यकरण और व्यावृत्त करते हैं ।
अनुच्छेद 32 प्रत्येक व्यक्ति को मूल अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए सीधे उच्चतम न्यायालय में समावेदन करने का अधिकार प्रदान करता है ।
अनुच्छेद 33 के अधीन संसद सशस्त्र बलों और लोक व्यवस्था बनाये रखने का भारसाधन करने वाले अन्य बलों को मूल अधिकारों के लागू होने को उपान्तरित कर सकती है, जिससे उनके कर्तव्यों का उचित पालन और उनमें अनुशासन बना रहना सुनिश्चित रहे ।
अनुच्छेद 34 उपबन्धित करता है कि जब सेना विधि भारत के किसी भाग में प्रवृत्त है, तब संसद विधि द्वारा किसी राज्य की सेवा में किसी व्यक्ति की किसी ऐसे कार्य के सम्बन्ध में क्षति पूर्ति कर सकेगी, जो उसने ऐसे क्षेत्र में विधि और व्यवस्था बनाए रखने या पुरःस्थापन के सम्बन्ध में किया हे या पारित किसी दण्डादेश या किये गये कार्य को विधिमान्य कर सकेगी, जब सेना विधि प्रवृत्त थी ।
राज्य की नीति के निदेशक तत्व
अनुच्छेद 36 से 51 राज्य की नीति के निदेशक तत्वों का प्रावधान करते हैं ।
अनुच्छेद 36 राज्य को परिभाषित करता है ।
अनुच्छेद 37 उपबन्धित करता है कि राज्य की नीति के निदेशक तत्वों के उपबन्ध किसी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होंगे ।
अनुच्छेद 38 उपबन्धित करता है कि राज्य सामाजिक व्यवस्था की स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृद्धि करने का प्रयास करेगा।
अनुच्छेद 39 उपबन्ध करता है कि राज्य अपनी नीति का यह सुनिश्चित करने के लिए संचालन करेगा कि सभी नागरिकों को जीविका के पर्याप्त साधन का अधिकार हो, समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण सामूहिक हित का साधन होने के लिए विभाजित हो, आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले, जिससे धन और उत्पादन साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी सकेन्द्रण न हो, पुरुषों एवं स्त्रियों दोनों का समान कार्य के लिए समान वेतन हो, कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो, बालकों को स्वतन्त्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ्य विकास के अवसर और सुविधायें दी जायें और बालकों और अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाय ।
अनुच्छेद 39क समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता के लिए प्रावधान करता है।
अनुच्छेद 40 ग्राम पंचायतों के संगठन के लिए उपबन्ध करता है।
अनुच्छेद 41 काम पाने के, शिक्षा पाने के और बेकारी, बुढ़ापे, बीमारी और निःशक्तता तथा अन्य अनर्ह अभाव की दशाओं में लोक सहायता पाने के अधिकार के लिए उपबन्ध करता है।
अनुच्छेद 42 काम की न्यायसंगत और मानवोचित दाशाओं का तथा प्रसूति सहायता का उपबन्ध करता है ।
अनुच्छेद 43 कृषि के, उद्योग के या अन्य प्रकार के सभी मजदूरों को निर्वाह मजदूरी, शिष्ट जीवन स्तर और अवकाश का सम्पूर्ण उपभोग सुनिश्चित करने वाली काम की दशायें तथा सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर के लिए उपबन्ध करता है और ग्रमीण क्षेत्रों में कुटीर उद्योगों की वृद्धि के लिए उपबन्ध करता है। अनुच्छेद 43क उद्योगों के प्रबन्धन में कर्मकारों की भागीदारी के लिए प्रावधान करता है। अनुच्छेद 43ख सहकारी समितियों के संवर्धन के लिए उपबन्ध करता है ।
अनुच्छेद 44 नागरिकों के लिए समान सिविल संहिता को सुनिश्चित करने के लिए उपबन्ध करता है।
अनुच्छेद 45 शैशव पूर्व देख भाल तथा सभी बालकों के लिए उनके छ: वर्ष की आयु पूरी कर लेने तक शिक्षा के लिए उपबन्ध करता है ।
अनुच्छेद 46 अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ सम्बन्धी हितों की अभिवृद्धि के लिए उपबन्ध करता है ।
अनुच्छेद 47 राज्य के पोषाहार स्तर और जीवन स्तर ऊँचा करने और लोक स्वास्थ्य के सुधार करने के कर्तव्य के बारे में अधिकथित करता है
अनुच्छेद 48 कृषि और पशु पालन के संगठन के लिए उपबन्ध करता है ।
अनुच्छेद 48क पर्यावरण के संरक्षण तथा संवर्धन और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा के लिए उपबन्ध करता है ।
है ।
अनुच्छेद 49 राष्ट्रीय महत्व से संस्मारकों और स्थानों और वस्तुओं के संरक्षण के लिए उपबन्ध करता
अनुच्छेद 50 कार्यपालिका से न्यायपालिका के पृथक्करण के लिए उपबन्ध करता है।
अनुच्छेद 51 अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि के लिए उपबन्ध करता है।
मूल कर्तव्य
अनुच्छेद 51क मूल कर्तव्यों के सम्बन्ध में उपबन्ध करता है । यह उपबन्ध संविधान में भाग 4-क को अन्तःस्थापित करके संविधान ( बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा पुर: स्थापित किया गया था। उन्हें संवैधानिक ढंगों द्वारा उन्नीत किया जा सकता है ।
निम्नलिखित 11 मूल कर्तव्य हैं अर्थात्-
(1) संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे, [अनुच्छेद 51क (क)]
(2) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोये रखे और उनका पालन करे, [अनुच्छेद 51क (ख)]
(3) भारत की सम्प्रभुता, एकता और अखण्डता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे, [अनुच्छेद 51क (ग)]
(4) देश की रक्षा के और आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा करे, [अनुच्छेद 51क (घ)]
(5) भारत के सभी लोगों को समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे, जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव के परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करें, जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हैं, [अनुच्छेद 51-क (ङ) ]
(6) हमारी सामाजिक संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का महत्व समझे और उसका परिरक्षण करे [ अनुच्छेद 51-क (च) ]
(7) प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अन्तर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करें और उसका संवर्धन करे तथा प्राणिमात्र के प्रति दया भाव रखे, [अनुच्छेद 51-क (छ) ]
(8) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे [अनुच्छेद 51-क (ज) ]
(१) सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे, [अनुच्छेद 51-क (झ) ]
(10) व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे, जिससे राष्ट्र निरन्तर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊँचाईयों को ले, [अनुच्छेद 51-क (ञ)] ।
(11) माता-पिता या संरक्षक छः वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले अपने यथास्थिति बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा के अवसर प्रदान करें। [ अनुच्छेद 51-क (ट) ]
भारत का राष्ट्रपति
अनुच्छेद 52 उपबन्धित करता है कि भारत का एक राष्ट्रपति होगा ।
अनुच्छेद 53 के अनुसार, संघ की कार्यपालिका शक्ति भारत के राष्ट्रपति में निहित है । वह ऐसी शक्ति का प्रयोग या तो स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करता है ।
राष्ट्रपति का निर्वाचन निर्वाचकगण के सदस्यों द्वारा किया जाता है। निर्वाचकगण में संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य और राज्यों की विधनासभाओं के निर्वाचित सदस्य होते हैं और राष्ट्रपति के निर्वाचन में भिन्न-भिन्न राज्यों के प्रतिनिधित्व के माप मान में एकरूपता होती है। राष्ट्रपति का निर्वाचन एकल संक्रमणीय मत द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार किया जाता है और ऐसे निर्वाचन में मतदान गोपनीय मतपत्र द्वारा होता है। राष्ट्रपति उस तारीख से, जिसको वह अपना पद धारण करता है, 5 वर्ष के लिए पद धारण करता है और वह पुनः निर्वाचित किया जा सकता है । राष्ट्रपति के लिए पात्र होने के लिए व्यक्ति को भारत का नागरिक होना चाहिए और 35 वर्ष की आयु पूरी करना चाहिए और लोकसभा का सदस्य होने के लिए अर्हित होना चाहिए।
राष्ट्रपति को संसद के किसी सदन या किसी राज्य के विधानसभा का सदस्य नहीं होना चाहिए, लाभ का कोई अन्य पद धारण नहीं करना चाहिए, वह बिना किराया दिए अपने शासकीय निवासों के उपयोग का हकदार है और ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकार का हकदार है, जैसा कि संसद द्वारा विधि द्वारा अवधारित किया जाय। [अनुच्छेद 59 ]
राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायमूर्ति या उसकी अनुपस्थिति में उच्चतम न्यायालय के जयेष्ठम न्यायाधीश के समक्ष शपथ लेता है और प्रतिज्ञान करता है । [ अनुच्छेद 60]
राष्ट्रपति पर अभियोग केवल तब लगाया जा सकता है, यदि वह संविधान के प्रावधानों का अतिक्रमण करता है और ऐसा आरोप या तो लोकसभा में या राज्य सभा में लगाया जायेगा ।
भारत के राष्ट्रपति का कार्य और शक्तियाँ-
(1) वह भारत के प्रधानमंत्री और उसकी सलाह पर मंत्रिपरिषद की नियुक्ति करता है ।
(2) वह सरकार के कारबार के अधिक सुविधापूर्ण संव्यवहार के लिए नियम निर्मित करता है और ऐसे कारबार के लिए मंत्रियों के बीच आवण्टन करता है।
(3) उसे मंत्रिपरिषद के सभी विनिश्चयों की सूचना दी जानी चाहिए ।
(4) कोई विधेयक राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बिना अधिनियम नहीं हो सकता। धन विधेयक के सिवाय वह अन्य विधेयकों को संसद के पुनः विचारण के लिए वापस कर सकता है।
(5) जब दो सदन विधेयक के प्रावधानों पर सहमत नहीं हैं, जब वह उन्हें संयुक्त बैठक के लिए समन कर सकता है।
(6) जब संसद सत्र में न हो, तब वह अध्यादेश प्रख्यापित कर सकता है।
(7) जब भारत की सुरक्षा खतरे में हो, तब वह आपात स्थिति की उद्घोषणा कर सकता है। वह किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन तथा वित्तीय आपात स्थिति को भी प्रख्यापित कर सकता है।
(8) वह उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायमूर्तियों, मुख्य निर्वाचन आयुक्त, नियंत्रक और महालेखापरीक्षक, संघ लोकसेवा आयोग के सदस्यों को नियुक्त करता है । वह राजदूतों और विदेश में भारत के अन्य राजनयिक प्रतिनिधियों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों, पिछड़े वर्गों और अल्पसंख्यकों के आयुक्तों, राज्यों के राज्यपालों और संघ राज्य क्षेत्रों के उपराज्यपालों, मुख्य आयुक्त और प्रशासकों, वित्त आयोग तथा अन्तर्राज्यिक परिषद के सदस्यों की भी नियुक्ति करता है। इसके अतिरिक्त संघ सरकार में प्रत्येक नियुक्ति राष्ट्रपति के नाम में और उसके प्राधिकार के अधीन की जाती है।
(9) वह भारतीय प्रतिरक्षा बल का सर्वोच्च कमाण्डर है। वह संसद को आहूत करता है, का सत्रावसान करता है और को सम्बोधित करता है। वह लोकसभा का विघटन भी करता है।
(10) दण्ड को क्षमा, उसका प्रविलम्बन, विराम या परिहार कर सकता है।
राष्ट्रपति की विधायी शक्तियाँ. – जब संसद के दोनों सदन सत्र में न हों और यदि राष्ट्रपति को समाधान हो जाता है कि ऐसी परिस्थितियाँ विद्यमान हैं, जो उसके लिए तत्काल कार्यवाही करना आवश्यक बनाती हैं, तो वह ऐसा अध्यादेशों का प्रख्यापन कर सकता है, जैसा कि परिस्थितियाँ अपेक्षा करने के लिए उसको प्रतीत होती हैं। [अनुच्छेद 123]
भारत का उप राष्ट्रपति
अनुच्छेद 63 उपबन्धित करता है कि भारत का एक उपराष्ट्रपति होगा ।
उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होता है किन्तु जब वह राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है, तब वह राज्य सभा का पदेन सभापति होने से प्रवरित हो जाता है ।
उपराष्ट्रपति आकस्मिक रिक्ति के दौरान या राष्ट्रपति की अनुपस्थिति के दौरान राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है और उसके कृत्यों का निवर्हन करता है । उपराष्ट्रपति का निर्वाचन संसद के दोनों सदनों अर्थात् लोकसभा और राज्य सभा के सदस्यों के निर्वाचकगण के सदस्यों द्वारा एकल संक्रणीय मत द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार किया जाता है और ऐसे निर्वाचन में मतदान गुप्त होता है ।
उपराष्ट्रपति उस तारीख से, जिसको वह अपना पद ग्रहण करता है, 5 वर्ष के लिए पद धारण करता है। उपराष्ट्रपति अपने पद से राज्यसभा के सदस्यों के बहुमत द्वारा संकल्प पर हटाया जा सकता है।
प्रधानमंत्री
भारत का प्रधानमंत्री लोकसभा में बहुमत दल का नेता है। वह मंत्रिपरिषद का अध्यक्ष है। उसके कृत्यों के अन्तर्गत राष्ट्रपति को उसके कृत्यों के प्रयोग में सहयोग और सलाह देना है ।
प्रधानमंत्री भारत के नीति आयोग का अध्यक्ष होता है ।
प्रधानमंत्री लोकसभा में अपने राजनैतिक दल द्वारा एकमत से निर्वाचित किए जाने के पश्चात् राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति प्रधानमंत्री के सलाह पर राष्टपति द्वारा की जाती है । वह राष्ट्रपति को संघ के विषयों के प्रशासन से सम्बन्धित मंत्रिपरिषद के सभी विनिश्चयों और विधान के लिए प्रस्तावों की संसूचना देता है। [अनुच्छेद 78]
भारत का महान्यायवादी
भारत का महान्यायवादी देश का प्रथम विधि अधिकारी है । उसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त पद धारण करता है । महान्यायवादी होने के लिए अर्हित होने वाले व्यक्ति को उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति के पद के लिए पात्र होना चाहिए । महान्यायवादी विधिक मामलों पर केन्द्रीय सरकार को सलाह देता है और विधिक प्रकृति के कर्तव्यों का निर्वहन करता है । महान्यायवादी को उसके कर्तव्यों के पालन में भारत के राज्यक्षेत्र में सभी न्यायालयों में सुनवाई का अधिकार है ।
भारत की संसद
संसद भारत के राष्ट्रपति और दो सदनों अर्थात् राज्यसभा और लोकसभा से मिलकर बनती है। राज्यसभा 12 सदस्यों, जो राष्ट्रपति द्वारा नामनिर्देशित किए जाते हैं और राज्यों के तथा संघ राज्य क्षेत्रों के 238 से अनधिक प्रतिनिधियों से मिलकर बनती है।
राज्यसभा में स्थानों को राज्यों के और संघ राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों द्वारा भरा जाता है ।
राज्यसभा में प्रत्येक राज्य के प्रतिनिधि एकल संक्रमणीय मत द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार राज्य की विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों द्वारा निर्वाचित किए जाते हैं। राज्यसभा में संघ राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों का चुनाव ऐसी रीति से किया जाता है जैसा कि संसद विधि द्वारा विहित करे। लोकसभा राज्यों में प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुने हुए 530 सदस्यों से अनधिक और संघ राज्य क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने के लिए ऐसी रीति से, जैसा कि संसद विधि द्वारा उपबन्धित करें, चुने गए, 20 सदस्यों से अनधिक से मिलकर बनती है। दो सदस्य राष्ट्रपति द्वारा आंग्ल-भारतीय समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए नाम निर्देशित किए जाते हैं ।
संविधान (इक्यान्वेवां संशोधन) अधिनियम, 2003 अधिकथित करता है कि लोकसभा में प्रधानमंत्री को शामिल करते हुए मंत्रियों की कुल संख्या लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या के 15% से अधिक नहीं होगी।
लोकसभा और राज्यसभा की शक्तियाँ
सामान्य विधेयक के मामले में, लोकसभा और राज्य सभा भिन्न आधार पर स्थित नहीं हैं। धन विधेयक के मामले में, लोकसभा श्रेष्ठ स्थिति का उपयोग करती है। धन विधेयक राज्य सभा में पुरः स्थापित नहीं किया जा सकता है और उसे धन विधेयक का संशोधन करने या नामंजूर करने की कोई शक्ति नहीं है। राज्यसभा को दो विशेष शक्तियाँ हैं । यह संसद को राज्य सूची के विषयों के सम्बन्ध में विधान निर्मित करने के लिए सशक्त करती है और यह नई अखिल भारतीय सेवाओं को सृजित करने के लिए संसद को सशक्त करती है।
धन विधेयक भारत सरकार के उधार लेने, भारत की संचित निधि, आकस्मिक निधि या लोक लेखा की अभिरक्षा और रखरखाव तथा संघ और राज्यों की लेखा की लेखा सम्परीक्षा के सम्बन्ध में उपबन्ध करता है। यह किसी कर के अधिरोपण, उन्मूलन, परिहार, परिवर्तन या विनियमन का प्रावधान करता है। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या विधेयक धन विधेयक है या नहीं, यह लोकसभा के अध्यक्ष पर आधारित है । धन विधेयक राष्ट्रपति की सिफारिश पर लोकसभा में पेश होता है। जब धन विधेयक राज्यसभा को भेजा जाता है और राज्यसभा 14 दिनों के भीतर उसकी सिफारिश करने में असफल रहती है, जब उसे लोकसभा में पारित करने के पश्चात् राज्यसभा को भेजा जाता है, तब यह माना जाता है कि विधेयक लोकसभा और राज्यसभा दोनों द्वारा पारित किया गया है और इसके पश्चात उसे राष्ट्रपति के पास उसकी सम्मति के लिए भेजा जाता है ।
सामान्य विधेयक
धन विधेयक के सिवाय कोई विधेयक किसी सदन में पुरःस्थापित किया जा सकता है और तीन विभिन्न प्रक्रमों जैसे प्रथम वाचन, द्वितीय वाचन, समिति प्रक्रम और रिपोर्ट प्रक्रम और तृतीय वाचन के माध्यम से पारित होता है । विधेयक को लोकसभा द्वारा पारित किए जाने के पश्चात् उसे राज्यसभा को भेजा जाता है और राज्यसभा द्वारा पारित किए जाने के पश्चात् उसे राष्ट्रपति को उसकी सम्मति के लिए भेजा जाता है और राष्ट्रपति के अपनी सम्मति देने के पश्चात् वह विधि हो जाता है ।
संसद की सदस्यता के लिए अर्हतायें
व्यक्ति को भारत का नागरिक होना चाहिए, उसे लोकसभा की सदस्यता के मामले में 25 वर्ष से कम का नहीं होना चाहिए तथा राज्यसभा की सदस्यता के मामले में 30 वर्ष के कम नहीं होना चाहिए।
संसद के सदस्यों की निरर्हता के लिए आधार
संसद का सदस्य निरर्हित किया जा सकता है, यदि वह-
(क) भारत सरकार के या किसी राज्य सरकार के अधीन लाभ का कोई पद धारण करता है [अनुच्छेद 102 (1) (क)] ।
(ख) सक्षम न्यायालय द्वारा विकृत चित्त घोषित किया जाता है, [अनुच्छेद 102 (1) (ख) ] । (ग) अनुन्मोचित दिवालिया है, [अनुच्छेद 102 (1) (ग)]।
(घ) भारत का नागरिक नहीं रह जाता, [अनुच्छेद 102 (1) (घ) ] ।
(ङ) यदि वह संसद की अनुमति के बिना संसद से 60 दिनों के लिए स्वयं अनुपस्थित रहता है ।
निरर्हता के मामले का विनिश्चय राष्ट्रपति द्वारा भारत के निर्वाचन आयोग की सलाह के अनुसार किया जाता है ।
दल बदल विरोधी
दलबदल विरोध के लिए प्रावधान संविधान की दसवीं अनुसूची में अन्तर्विष्ट है, जो संविधान (बावनवें संशोधन) अधिनियम, 1985 द्वारा अन्तःस्थापित की गयी थी। यदि सदस्य अपने दल से किसी अन्य दल में दल बदल करता है, तो वह अध्यक्ष द्वरा निरर्हित किया जाता है किन्तु उसकी निरर्हता न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन है।
दो अपवाद हैं, जिन मामलों में कोई निरर्हता नहीं होती :
(क) कोई सदस्य निरर्हित नहीं किया जा सकता, यदि दल के सदस्यों के एक तिहाई का समूह पृथक होने का विनिश्चय करता है।
(ख) या यदि दल के कुल सदस्यों के दो तिहाई का समूह किसी अन्य दल में विलय करने का विनिश्चय करता है ।
संसद और उसके सदस्यों का विशेषाधिकार और उन्मुक्तियां
संविधान संसद में वाक् की स्वतंत्रता और उसकी कार्यवाही के प्रकाशन की स्वतंत्रता प्रत्याभूत करता है । संसद को उसके विशेषाधिकारों का उल्लंघन करने के लिए किसी व्यक्ति को दण्डित करने की भी शक्ति है। जब संसद सत्र में हो और उसके 40 दिन पूर्व और पश्चात्, संसद सदस्य (सांसद) सिविल मामलों में गिरफ्तारी से उन्मुक्त हैं। दाण्डिक मामलों, में उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा सकता, जब सदन सत्र में हो ।
संसदीय समितियां
संसदीय समितियों का गठन कार्यपालिका पर प्रभावी नियंत्रण के लिए युक्ति है। इस सन्दर्भ में, निम्न तीन समितियां, वित्तीय नियंत्रण का प्रयोग करने के कारण महत्वपूर्ण हैं-
(1) लोक लेखा समिति. – इसमें 22 सदस्य (लोकसभा से 15 + राज्यसभा से 7) होते हैं यह सुनिश्चित करती है कि सरकार संसद की स्वीकृति के अनुसार धन व्यय करती है। इसकी अध्यक्षता विरोधी सदस्य द्वारा की जाती है। भारत नियंत्रक और महालेखाकार परीक्षक (सी० ए० जी०) समिति की सहायता करता है।
(2) प्राक्कलन समिति. – इसमें 30 सदस्य होते हैं, जिनमें से सभी लोकसभा से लिए जाते हैं। यह इस पर रिपोर्ट करती है कि कौन समिति प्रशासनिक सुधार प्रशासन की दक्षता को सुनिश्चित करने के लिए प्रभावी हो सका है।
(3) लोक उपक्रम समिति. – इसमें 22 सदस्य (लोग सभा से 15 + राज्यसभा से 7) होते हैं। यह लोक उपक्रम के लेखा की परीक्षा करती है और यह देखती है कि क्या वे ठो कारबार सिद्धान्तों पर संचालित किए जा रहे हैं ।
संसद का सत्र
संसद के दो सत्रों के बीच, छः मास के अधिक का अन्तराल नहीं होना चाहिए। सदन के विधेयकों और अन्य कारबार के लम्बित रहने के मामले में विधेयक सत्रावसान पर व्यपगत नहीं होते। जब वह सत्रावसान के पश्चात् बैठता है, तब सदन इन लम्बित मामलों को ग्रहण करता है। नये सदन का पुनर्गठन सदन के विघटन के पश्चात् किया जाता है। यह उल्लेख किया जा सकता है कि लोकसभा का विघठन पाँच वर्ष की उसकी सामान्य अवधि के अवसान के पश्चात् या किसी अन्य मामले में ऐसी अवधि के दौरान होता है किन्तु राज्य सभा स्थायी सदन है। राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह पर लोकसभा का विघटन करने के लिए तो प्राधिकारी है। यदि कोई विधेयक राज्यसभा में लम्बित है किन्तु लोकसभा में पारित नहीं किया गया है, वह लोकसभा के विघटन पर व्यपगत नहीं होता है किन्तु अन्य विधेयक व्यपगत होते हैं ।
राष्ट्रपति संसद के किसी सदन या एक साथ दोनों सदनों में अभिभाषण कर सकता है। लोकसभा के लिए प्रत्येक साधारण निर्वाचन के पश्चात् प्रथम सत्र के आरम्भ में और प्रत्येक वर्ष सत्र के आरम्भ में राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों में अभिभाषण करता है ।
संसद का संयुक्त सत्र
उस मामले में, जहाँ सदन द्वारा पारित विधेयक अन्य सदन द्वारा नामंजूर किया जाता है और मामले में, जहां एक सदन में विधेयक में प्रस्तावित संशोधन को अन्य सदन द्वारा नामंजूर किया जाता है और उस मामले में भी यदि अन्य सदन लगादार 6 मास तक विधेयक में कोई कार्यवाही नहीं करता है, तब राष्ट्रपति लोकसभा और राज्यसभा दोनों का संयुक्त सत्र आहूत कर सकता है। संयुक्त सत्र की अध्यक्षता लोकसभा के अध्यक्ष द्वारा की जाती है। उसका विनिश्चय अन्तिम होता है, यदि वह उपस्थित सदस्यों की बहुमत की राय प्राप्त करता है ।
भारत का नियंत्रक – महालेखा परीक्षक
नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सी० ए० जी०) की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा की जाती है। [अनुच्छेद 148]
नियंत्रक-महालेखा परीक्षक संघ के और राज्यों के तथा संसद द्वारा विहित किसी अन्य प्राधिकरण या निकाय के लेखा के सम्बन्ध में शक्ति का प्रयोग करता है ।
भारत का नियंत्रक-महालेखा परीक्षक संघ के लेखा की स्थिति में अपनी रिपोर्ट भारत के राष्ट्रपति को सौंपता है, जो उन्हें लोकसभा और राज्यसभा दोनों के समक्ष रखवायेगा ।
राज्यों के लेखा के सम्बन्ध में भारत के नियंत्रक – महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट राज्य के राज्यपाल को सौंपी जाती है और ऐसी रिपोर्ट उस राज्य के विधानमण्डल के समक्ष रखी जाती है। [अनुच्छेद 151]
नियंत्रक-महालेखापरीक्षण सार्वजनिक कोष का संरक्षक है और भारतीय संविधान का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। उसकी पदावधि 6 वर्ष या 65 वर्ष की आयु तक है वह संसद के लोकलेखा समिति को मार्गनिर्देशन देता है।
राज्यों के राज्यपाल
अनुच्छेद 153 उपबन्धित करता है कि प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल होगा।
राज्य के राज्यपाल की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा की जाती है। राज्यपाल राज्य का मुख्य कार्यपालक है। एक ही व्यक्ति को दो या अधिक राज्यों के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया जा सकता है। राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त पद धारण करता है और वह उस तारीख से, जब वह अपना पद ग्रहण करता है, 5 वर्ष की अवधि के लिए पद धारण करता है। व्यक्ति राज्यपाल के रूप में नियुक्ति के लिए पात्र है, यदि वह भारत का नागरिक है और 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका है। [अनुच्छेद 157]
राज्यपाल कुछ मामलों में दण्ड को क्षमा प्रदान कर सकता है, उसका निलम्बन, परिहार या लघुकरण कर सकता है। [अनुच्छेद 161 ]
राज्यपाल मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री की सलाह पर उस राज्य के अन्य मंत्रियों को भी नियुक्त करता है । [अनुच्छेद 164]
राज्य में मंत्रिपरिषद में मुख्यमंत्री को शामिल करते हुए मंत्रियों की कुल संख्या उस राज्य के विधानसभा के सदस्यों की कुल संख्या के 15% से अधिक नहीं होती : [अनुच्छेद 164 (1-क) ]
राज्य का राज्यपाल उस राज्य के लिए महाधिवक्ता की नियुक्ति करता है, जो राज्यपाल के प्रसाद पर्यन्त पद धारण करता है। [अनुच्छेद 165]
राज्य की समस्त कार्यपालिका कार्यवाही राज्यपाल के नाम में की जाती है। [ अनुच्छेद 166 ]
राज्यपाल की विधायी शक्ति. – उस समय को छोड़कर, जब किसी राज्य की विधानसभा सत्र में या विधान परिषद वाले राज्य में विधानमण्डल के दोनों सदन सत्र में हैं, यदि किसी समय राज्यपाल का यह समाधान हो जाता है कि ऐसी परिस्थितियां विद्यमान हैं, जिनके कारण तुरन्त कार्यवाही करना उसके लिए आवश्यक हो गया है, तो वह ऐसे अध्यादेश प्रख्यापित कर सकेगा, जो उसे उन परिस्थितियों में अपेक्षित प्रतीत हों। [अनुच्छेद 213]
भारत का उच्चतम न्यायालय
उच्चतम न्यायालय भारत के मुख्य न्यायमूर्ति और तीस अन्य न्यायमूर्तियों से अनधिक से गठित होता है। मुख्य न्यायमूर्ति और अन्य न्यायमूर्तियों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वे 65 वर्ष की आयु तक पद धारण करते हैं। [अनुच्छेद 124 (1) और (2) ]
न्यायमूर्ति राष्ट्रपति को अपना त्यागपत्र सम्बोधित करता है। उच्चतम न्यायालय का न्यायमूर्ति होने के लिए व्यक्ति को भारत का नागरिक होना चाहिए, किसी उच्च न्यायालय में कम से कम 5 वर्ष के लिए न्यायमूर्ति होना चाहिए या किसी उच्च न्यायालय में कम से कम 10 वर्ष के लिए अधिवक्ता होना चाहिए। [अनुच्छेद 124 (2) तथा (3)]
उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति पर महाभियोग संसद के प्रत्येक सदन द्वारा उस सदन की कुल सदस्यता के बहुमत द्वारा और उपस्थित तथा मतदान करने वाले सदन के सदस्यों के दो तिहाई से अनन्यून बहुमत द्वारा समर्थित साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर ऐसे हटाने के लिए उसी सत्र में राष्ट्रपति के समक्ष पेश किए गए समावेदन के पश्चात् पारित राष्ट्रपति के आदेश द्वारा लगाया जा सकता है। [अनुच्छेद 124 (4) ]
उच्चतम न्यायालय का न्यायमूर्ति अपनी सेवानिवृत्ति के पश्चात् और उच्चतम न्यायालय में अपनी पदावधि के दौरान किसी न्यायालय में या सम्पूर्ण भारत में किसी प्राधिकारी के समक्ष अभिवचन या कार्य नहीं कर सकता। [ अनुच्छेद 124 (7) ]
उच्चतम न्यायालय अभिलेख का न्यायालय है और उसे उसके अवमान के लिए दण्डित करने की शक्ति है। [अनुच्छेद 129]
उच्चतम न्यायालय को भारत सरकार और एक या अधिक राज्यों के बीच या एक तरफ भारत सरकार और किसी राज्य या राज्यों और दूसरी तरफ एक या अधिक अन्य राज्यों के बीच या दो या अधिक राज्यों के बीच किसी विवाद में आरम्भिक अधिकारिता है। [ अनुच्छेद 131]
अपील उच्च न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री या अन्तिम आदेश से भी उच्चतम न्यायालय में दाखिल होगी, यदि मामला विधि के सारभूत प्रश्न को अन्तर्ग्रस्त करता है । [अनुच्छेद 132]
अपील उच्च न्यायालय के किसी सिविल मामले में निर्णय, डिक्री या अन्तिम आदेश से भी उच्चतम न्यायालय में दाखिल होगी, यदि मामला विधि के सारभूत प्रश्न को अन्तर्ग्रस्त करता है। [अनुच्छेद 133]
अपील उच्च न्यायालय की दाण्डिक कार्यवाही में किसी निर्णय, अन्तिम आदेश या दण्डादेश से भी उच्चतम न्यायालय में दाखिल होगी। [अनुच्छेद 134]
उच्चतम न्यायालय अपने विवेकाधिकार में किसी न्यायालय या अधिकरण द्वारा पारित या किए गए किसी वाद या मामले में किसी निर्णय, डिक्री, अवधारण, दण्डादेश या आदेश से अपील दाखिल करने की विशेष इजाजत प्रदान कर सकता है। [अनुच्छेद 136]
उच्चतम न्यायालय को अपने निर्णय का पुनर्विलोकन करने की शक्ति है । [अनुच्छेद 137]
उच्चतम न्यायालय द्वारा घोषित विधि भारत में सभी न्यायालयों पर आबद्धकर है। [अनुच्छेद 141]
उच्चतम न्यायालय को न्यायालय ( उच्चतम न्यायालय) की पद्धति और प्रक्रिया के लिए भारत के राष्ट्रपति के पूर्व अनुमोदन से समय समय से नियम निर्मित करने की शक्ति है । [अनुच्छेद 145 ]
राज्य विधान मण्डल
प्रत्येक राज्य विधान मण्डल में राज्यपाल और विधानसभा शामिल है किन्तु जहां दो सदन हैं, वहाँ विधानमण्डल में राज्यपाल, विधान परिषद और विधानसभा शामिल हैं। [अनुच्छेद 168]
संसद राज्य के विधान परिषद का उत्सादन कर सकती है। [अनुच्छेद 169]
राज्य की विधान सभा राज्य में प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से लोगों द्वारा प्रत्यक्षतः निर्वाचित 500 से अनधिक सदस्यों और 60 से अन्यून सदस्यों से मिलकर बनती है। [अनुच्छेद 170]
विधान परिषद के सदस्य उस राज्य में विधानसभा में सदस्यों की कुल संख्या के एक तिहाई से अधिक नहीं होंगे किन्तु विधान परिषद में सदस्यों की कुल संख्या 40 से न्यून नहीं होगी। [अनुच्छेद 171]
राज्य विधानसभा की अवधि उसकी प्रथम बैठक की तारीख से 5 वर्ष है । [अनुच्छेद 172]
विधानसभा का सदस्य होने के लिए अर्हित होने के लिए व्यक्ति को भारत का नागरिक होना चाहिए, 25 वर्ष की आयु का होना चाहिए और विधान परिषद् के सदस्य के मामले में न्यूनतम आयु सदस्यता के समय 30 वर्ष है। [अनुच्छेद 173]
संविधान (इक्यान्वेवां संशोधन) अधिनियम, 2003 के अनुसार, मुख्यमंत्री को शामिल करते हुए मंत्रियों की कुल संख्या विधानसभा में सदस्यों की कुल संख्या का 15% से अधिक नहीं होगी।
विधानसभा का अध्यक्ष और उपाध्यक्ष – विधानसभा का अध्यक्ष और उपाध्यक्ष राज्य की विधानसभा द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। [अनुच्छेद 178]
राज्य की विधानसभा या विधान परिषद का प्रत्येक सदस्य राज्यपाल के समक्ष शपथ लेता है या प्रतिज्ञान करता है। [अनुच्छेद 188]
सदस्यों की निरर्हता के लिए विनिश्चय राज्यपाल पर आधारित है । [अनुच्छेद 192 ]
धन विधेयक विधानपरिषद में पुरःस्थापित नहीं किया जाता, यह विधानसभा में पुरःस्थापित किया जाता है [अनुच्छेद 198]
कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं, इसका उपबन्ध अनुच्छेद 199 में किया गया है।
जब विधेयक राज्य की विधानसभा द्वारा पारित किया गया है या विधानपरिषद वाले राज्य के मामले में विधानमण्डल के दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया है, तब वह राज्यपाल के समक्ष उसकी सम्मति के लिए पेश किया जाता है। [अनुच्छेद 200]
राज्यों में उच्च न्यायालय
प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय है। [ अनुच्छेद 214]
प्रत्येक उच्च न्यायालय अभिलेख न्यायालय है और उसे स्वयं के अवमान के लिए शक्ति को शामिल करते हुए ऐसे न्यायालय की सभी शक्तियां हैं । [ अनुच्छेद 215]
प्रत्येक उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायमूर्ति और ऐसे अन्य न्यायमूर्ति शामिल हैं, जैसा कि राष्ट्रपति समय समय पर नियुक्त करना आवश्यक समझे। [अनुच्छेद 216]
उच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायमूर्ति की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा उसके हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा भारत के मुख्य न्यायमूर्ति से परामर्श के पश्चात् की जाती है और वह 62 वर्ष की आयु तक पद धारण करता है। न्यायमूर्ति अपना त्यागपत्र भारत के राष्ट्रपति को सम्बोधित करता है। [अनुच्छेद 217]
।
उच्च न्यायालय का न्यायमूर्ति राज्यपाल के समक्ष शपथ लेता है और प्रतिज्ञान करता है [अनुच्छेद 219]
उच्च न्यायालय का सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति अन्य उच्च न्यायालयों में और उच्चतम न्यायालय में के सिवाय उसी उच्च न्यायालय या भारत में किसी अन्य प्राधिकरण में अभिवचन या कार्य नहीं कर सकता। [अनुच्छेद 220]
उच्च न्यायालय को किसी मूल अधिकार के प्रवर्तन के लिए बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण की प्रकृति में रिटों को शामिल करते हुए किसी व्यक्ति या प्राधिकारी को कोई निर्देश, आदेश या रिट जारी करने की शक्ति है। [अनुच्छेद 226]
प्रत्येक उच्च न्यायालय को उस राज्य के सम्पूर्ण राज्य क्षेत्र में सभी न्यायालयों और अधिकरणों पर अधीक्षण की शक्ति है । [अनुच्छेद 227]
अधीनस्थ न्यायालय
राज्य में जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति उच्च न्यायालय के परामर्श से राज्यपाल द्वारा की जाती है। [अनुच्छेद 233]
जिला न्यायाधीशों के अतिरिक्त अन्य न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति राज्य लोक सेवा आयोग और उच्च न्यायालय से परामर्श करके राज्यपाल द्वारा की जाती है। [अनुच्छेद 234]
संघ राज्य क्षेत्र
प्रत्येक संघ राज्य क्षेत्र का प्रशासन राष्ट्रपति द्वारा ऐसे पदाभिधान के साथ, जैसा कि वह विनिर्दिष्ट करे, उसके द्वारा नियुक्त प्रशासक के माध्यम से किया जाता है। [अनुच्छेद 239]
संसद को कुछ संघ राज्यक्षेत्रों के लिए स्थानीय विधानमण्डलों या मंत्रिपरिषद या दोनों को सृजित करने की शक्ति है। [अनुच्छेद 239-क]
संविधान (उनहत्तरवें संशोधन) अधिनियम, 1991 के प्रारम्भ की तारीख से अर्थात् 1 फरवरी 1992 दिल्ली संघराज्य क्षेत्र को राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र दिल्ली कहा जाता है और प्रशासक उपराज्यपाल के रूप से में पदाभिहित है।
दिल्ली में विधानसभा है और ऐसी सभा के सदस्यों का प्रत्यक्षतः निर्वाचन राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र दिल्ली में प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों के लोगों द्वारा किया जाता है। [अनुच्छेद 239-कक]
संसद संघ राज्यक्षेत्र के लिए उच्च न्यायालय का गठन करती है या किसी न्यायालय को किसी ऐसे राज्य क्षेत्र में उच्च न्यायालय होना घोषित करती है। [ अनुच्छेद 241]
पंचायत
प्रत्येक राज्य में, ग्राम, मध्यवर्ती और जिला स्तर पर पंचायत गठित किए जाते हैं । किन्तु मध्यवर्ती स्तर पर पंचायतों का गठन उस राज्य में नहीं किया जा सकता, जहां जनसंख्या 20 लाख से अधिक नहीं है। [अनुच्छेद 243-ख]
राज्य विधानमण्डल को उस राज्य में पंचायतों की संरचना के लिए विभिन्न अधिनियमितियों द्वारा उपबन्ध करने की शक्ति है। [अनुच्छेद 243-ग ]
प्रत्येक पंचायत में कुछ स्थान राज्यों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों, पिछड़े वर्गों तथा स्त्रियों के लिए आरक्षित किए जाते हैं। [अनुच्छेद 243-घ]
प्रत्येक पंचायत 5 वर्ष की अवधि तक बनी रहती हैं, यदि तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन पहले विघटित नहीं कर दी जाती है। [अनुच्छेद 243-ङ]
कोई व्यक्ति पंचायत का सदस्य होने से निरर्हित किया जा सकता है, यदि वह किसी विधि द्वारा या के अधीन इस प्रकार निरर्हित किया जाता है । [ अनुच्छेद 243-च]
पंचायत की शक्तियां, प्राधिकार और उत्तरदायित्व राज्य सरकार द्वारा विधि के अधीन अधिकथित किए जाते हैं । [ अनुच्छेद 243-छ]
पंचायतें कर अधिरोपित कर सकती हैं और निधि प्राप्त कर सकती हैं। [अनुच्छेद 243-ज]
राज्य निर्वाचन आयोग में पंचायतों से सभी निर्वाचनों के लिए निर्वाचक नामावली तैयार करने और संचालन के अधीक्षण, निदेशन और नियंत्रण की शक्तियां निहित हैं। [अनुच्छेद 243]
नगरपालिकाएं
प्रत्येक राज्य में, नगर पंचायत, नगरपालिका परिषद और नगर निगम का गठन क्रमशः संक्रमणशील क्षेत्र के लिए, लघुतर नगरीय क्षेत्र के लिए और वृहत्तर नगरीय क्षेत्र के लिए किया जाता है। [अनुच्छेद 243-थ]
नगर पालिका में सभी स्थान नगरपालिका क्षेत्र में प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाते हैं । [ अनुच्छेद 243-द]
तीन लाख या अधिक जनसंख्या धारण करने वाले नगर पालिका के प्रादेशिक क्षेत्र के अन्तर्गत वार्ड समितियां गठित की जाती हैं। [अनुच्छेद 243-ध]
राज्य में प्रत्येक नगर पालिका में स्थान अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों, पिछड़े वर्गों तथा स्त्रियों के लिए आरक्षित किए जाते हैं । [ अनुच्छेद 243-न]
प्रत्येक नगरपालिका, यदि किसी विधि द्वारा पहले विघटित नहीं की जाती, 5 वर्ष तक बनी रहती है। [अनुच्छेद 243-प]
राज्य विधान-मंडल विधि द्वारा नगरपालिकाओं को ऐसी शक्तियां और प्राधिकार तथा उत्तरदायित्व प्रदान कर सकते हैं और ऐसे प्रयोजन के लिए उपबन्ध करता है। [अनुच्छेद 243-ब]
राज्य विधान मण्डल विधि द्वारा नगरपालिका को कर, शुल्क, पथकर और फीस उद्गृहीत संग्रहीत और विनियोजित करने के लिए प्राधिकृत करता है । [अनुच्छेद 243-भ]
अनुच्छेद 243-झ के अधीन राज्य के राज्यपाल द्वारा गठित वित्त आयोग नगरपालिकाओं की वित्तीय स्थिति का पुनर्विलोकन करता है और राज्यपाल से सिफारिश करता है। [अनुच्छेद 243-म]
नगरपालिकाओं के निर्वाचनों के संचालन के लिए निर्वाचक नामावली की तैयारी के अधीक्षण, निदेशन नियंत्रण की शक्तियां राज्य निर्वाचन आयोग में निहित हैं। [ अनुच्छेद 243-यक]
जिला योजना समिति का गठन प्रत्येक राज्य में जिला पंचायतों और नगरपालिकाओं द्वारा तैयार की गयी योजनाओं को समेकित करने और जिला के लिए प्रारूप विकास योजना को तैयार करने के लिए किया जाता है । [ अनुच्छेद 243- यघ ]
सहकारी समितियां
संविधान (97वें संशोधन) अधिनियम, 2011 के प्रारम्भ की तारीख से अर्थात् 15 फरवरी 2012 से, राज्य के विधान मण्डल को ऐच्छिक गठन, लोकतान्त्रिक सदस्य नियंत्रक, सदस्य आर्थिक भागीदारी और स्वतः कर्तव्य के सिद्धान्तों पर आधारित सहकारी समितियों के निगमन, विनियमन और समापन के सम्बन्ध में उपबन्ध करने के लिए सशक्त किया गया है। [अनुच्छेद 243-यझ]
सहकारी समिति के मामलों का प्रबन्धन 21 से अनधिक निदेशकों से गठित निदेशक बोर्ड को सौंपा जाता है। सदस्यों के रूप में व्यक्तियों को शामिल करने वाले सहकारी समिति के बोर्ड पर अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के लिए एक स्थान और महिलाओं के लिए दो स्थान के आरक्षण और व्यक्तियों के ऐसे वर्ग या संवर्ग से सदस्यों को धारण करने के लिए उपबन्ध किया गया है। [अनुच्छेद 243- यञ ]
बोर्ड के सदस्यों के निर्वाचनों के संचालन के लिए प्रक्रिया और मार्गनिर्देश का उपबन्ध राज्य के विधानमण्डल द्वारा किया जाता है।
सहकारी समिति से सभी निर्वाचनों के लिए निर्वाचक नामावली को तैयार और उसके संचालन का अधीक्षण, निर्देश और नियंत्रण ऐसे प्रधिकारी या निकाय में निहित होता है, जैसा कि राज्य के विधान मण्डल द्वारा उपबन्धित किया जाय ।
उसके निरन्तर व्यतिक्रम, या उसके कर्तव्यों के पालन में उपेक्षा के मामले में या जहां बोर्ड ने सहकारी समिति या उसके सदस्यों के हितों के प्रतिकूल कोई कार्य किया है या बोर्ड के गठन य कार्य में गतिरोध है या प्राधिकारी या निकाय, जैसा कि राज्य के विधानमण्डल द्वारा उपबन्ध किया गया है, राज्य अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार निर्वाचन का संचालन करने में असफल रहा है, बोर्ड को अधिक्रान्त या निलम्बन के अधीन रखा जा सकता है। [ अनुच्छेद 243-यठ]
प्रत्येक सहकारी समिति की वार्षिक साधारण सभा की बैठक वित्तीय वर्ष के समापन के छः मास की अवधि के भीतर आहूत की जाती है ।
सहकारी समिति द्वारा लेखा का रखरखाव और ऐसे लेखा का लेखा सम्परीक्षण प्रत्येक वित्तीय वर्ष में कम से कम एक बार किया जाता है। [अनुच्छेद 243 यड ]
प्रत्येक सहकारी समिति प्रत्येक वित्तीय वर्ष के समापन के छः मास के भीतर राज्य सरकार द्वारा पदाभिहित प्राधिकारी के समक्ष विवरणी दाखिल करेगी।
राज्य का विधान मण्डल विधि द्वारा सहकारी समितियों से सम्बन्धित अपराधों और ऐसे अपराधों के लिए शास्तियों के लिए उपबन्ध कर सकेगा । [ अनुच्छेद 243-यठ]
अनुसूचित और जनजाति क्षेत्र
पांचवी अनुसूची के उपबन्ध असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्यों के सिवाय किसी राज्य में अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण के लिए लागू होंगे। इन राज्यों में छठवीं अनुसूची के उपबन्ध लागू होंगे। [अनुच्छेद 244]
संसद ने असम राज्य के भीतर स्वायत्त राज्य का गठन किया है। [अनुच्छेद 244-क]
संघ और राज्यों के बीच सम्बन्ध
संसद भारत के सम्पूर्ण राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए विधि बना सकेगी और राज्य विधान मण्डल सम्पूर्ण राज्य या उसके किसी भाग के लिए विधि बना सकेगा। [अनुच्छेद 245]
संसद को किसी अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि, अन्तर्राष्ट्रीय करार या अभिसमयों के कार्यान्वयन के लिए भारत के सम्पूर्ण राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए कोई विधि बनाने की शक्ति है । [अनुच्छेद 253]
राज्यों और केन्द्र के बीच प्रशासनिक सम्बन्धों के लिए उपबन्ध किए गए हैं। [अनुच्छेद 256 और 261]
संसद विधि द्वारा अन्तर्राज्यिक नदी या नदीदून से सम्बन्धित विवादों के न्यायनिर्णयन के लिए उपबन्ध करती है। [अनुच्छेद 212]
राष्ट्रपति आदेश द्वारा अन्तर्राज्य परिषद की स्थापना करता है, यदि वह सोचता है कि लोकहित ऐसे परिषद् द्वारा पूरा किया जायेगा। [अनुच्छेद 263]
उपबन्ध भारत और राज्यों की संचित निधि और लोकलेखा के लिए किया गया है। [अनुच्छेद 266]
उपबन्ध भारत की आकस्मिकता निधि के लिए किया गया है। [अनुच्छेद 268]
संविधान (एक सौ एकवां संशोधन) अधिनियम, 2016 द्वारा अनुच्छेद 269क का अन्तःस्थापन किया गया है, इसके अनुसार अन्तर्राज्यिक व्यापार या वाणिज्य के अनुक्रम में माल और सेवा कर का उद्ग्रहण और संग्रहण भारत सरकार द्वारा किया जाएगा तथा संघ और राज्यों के बीच प्रभाजित किया जाएगा। [अनुच्छेद 269क]
संघ सूची में वर्णित कर का उद्ग्रहण तथा संग्रहण भारत सरकार द्वारा किया जाता है और भारत संघ तथा राज्यों के बीच वितरित किया जाता है। [अनुच्छेद 270]
सहायता अनुदान संघ द्वारा कुछ राज्यों को दिये जाते हैं। [अनुच्छेद 275]
वृत्तियों, व्यापारों, आजीविकाओं और नियोजनों पर करों के लिए उपबन्ध किया गया है। [अनुच्छेद 276]
राष्ट्रपति ने माल और सेवाकर परिषद् का गठन किया है। [अनुच्छेद 279क]
राष्ट्रपति प्रत्येक पाँचवे वर्ष की समाप्ति पर या पहले आदेश द्वारा वित्त आयोग का गठन करता है। [अनुच्छेद 280]
राष्ट्रपति वित्त आयोग की प्रत्येक सिफारिश को संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवाएगा। [अनुच्छेद 281]
प्रकीर्ण वित्तीय उपबन्ध
भारत की संचित निधि और भारत की आकस्मिकता निधि की अभिरक्षा ऐसी निधि की अभिरक्षा, ऐसी निधियों में धनराशियों के संदाय और उनसे धनराशियों के निकाले जाने, ऐसी निधियों में जमा धनराशियों से भिन्न भारत सरकार या उसकी ओर से प्राप्त लोक धनराशियों की अभिरक्षा, भारत के लोक लेखा में उनके संदाय और ऐसे लेखा से धनराशियों को निकाले जाने आदि का विनियमन संसद द्वारा निर्मित नियमों द्वारा किया जाता है। [अनुच्छेद 283]
उपबन्ध लोक सेवकों और न्यायालयों द्वारा प्राप्त वादकर्ताओं की जमा राशियों और अन्य धनराशियों की अभिरक्षा के लिए किये गये हैं । [ अनुच्छेद 284]
संघ की सम्पत्ति राज्य द्वारा या राज्य के भीतर किसी प्राधिकारी द्वारा अधिरोपित सभी करों से छूट प्राप्त है। [अनुच्छेद 285]
समायोजन कुछ व्ययों और पेन्शनों के सम्बन्ध में किये जा सकते हैं । [ अनुच्छेद 290]
संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार भारत की संचित निधि की प्रतिभूति पर ऐसी सीमाओं के भीतर, जिन्हें संसद द्वारा नियत किया जाय, उधार लेने तक और ऐसी सीमाओं के भीतर प्रत्याभूति देने तक है । [अनुच्छेद 292]
राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार राज्य की संचित निधि की प्रतिभूति पर ऐसी सीमाओं के भीतर, जिन्हें राज्य विधान-मण्डल द्वारा नियत किया जाय, भारत के भीतर उधार लेने तक और ऐसी सीमाओं के भीतर प्रत्याभूति देने तक है। [अनुच्छेद 292 ]
उपबन्ध सम्पत्ति, संविदाओं, अधिकारों, दायित्वों, बाध्यताओं और वादों के लिए किये गये हैं। [अनुच्छेद 294 से 300]
संघ की या राज्य की कार्यपालिक शक्ति के प्रयोग में की गयी सभी संविदायें राष्ट्रपति द्वारा या राज्यपाल द्वारा की गयी अभिव्यक्त की जायेगी। [अनुच्छेद 299 ]
भारत सरकार भारत संघ के नाम से वाद ला सकेगी या उस पर वाद लाया जा सकेगा और राज्य सरकार राज्य के नाम से वाद ला सकेगी या उस पर वाद लाया जा सकेगा। [अनुच्छेद 300 ]
सम्पत्ति का अधिकार
किसी व्यक्ति को उसकी सम्पत्ति से विधि के प्राधकार से ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं । [अनुच्छेद 300 क]
व्यापार, वाणिज्य और समागम की स्वतंत्रता
भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र व्यापार, वाणिज्य और समागम अबाध होगा । [अनुच्छेद 301]
संसद को एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच व्यापार, वाणिज्य और समागम की स्वतंत्रता पर निर्बन्धन अधिरोपित करने की स्वतंत्रता है। [अनुच्छेद 302]
संसद और राज्य विधान मण्डल को एक राज्य को दूसरे राज्य से अधिमानता प्रदान करते हुए या प्रदान करने को प्राधिकृत करते हुए या एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच या भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग के भीतर कोई विभेदीकरण करते हुए या करना प्राधिकृत करते हुए कोई विधि निर्मित करने की शक्ति नहीं है। [अनुच्छेद 303]
राज्यों के बीच व्यापार, वाणिज्य और समागम पर निर्बन्धन अनुच्छेद 304 के अधीन लगाए जाते हैं।
सेवायें
संसद विधि द्वारा एक या अधिक अखिल भारतीय सेवाओं के लिए उपबन्ध कर सकेगी। [अनुच्छेद 312 (1)]
लोक सेवा आयोग
संघ के लिए एक लोक सेवा आयोग और प्रत्येक राज्य के लिए एक लोक सेवा आयोग है। [ अनुच्छेद 315]
लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और अन्य सदस्यों की नियुक्ति संघ लोक सेवा आयोग के मामले में राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और राज्य लोक सेवा आयोग के मामले में उनकी नियुक्ति उस राज्य के राज्यपाल द्वारा की जाती है। [अनुच्छेद 316]
राष्ट्रपति और राज्यपालों को क्रमश: संघ और राज्यों के मामले में आयोग के सदस्यों और कर्मचारियों की संख्या और सेवा की शर्तों के सम्बन्ध में विनियम बनाने की शक्ति है। [अनुच्छेद 318]
प्रशासनिक अधिकरण
संसद ने विधि द्वारा लोक सेवाओं और पदों आदि के लिए नियुक्त किए गए व्यक्तियों की भर्ती और सेवा शर्तों के सम्बन्ध में विवादों के प्रशासनिक अधिकरणों द्वारा न्यायनिर्णयन या विचारण के लिए उपबन्ध किए हैं। [अनुच्छेद 323-क ]
समुचित विधानमण्डल विधि द्वारा ऐसे विवादों, परिवादों या अपराधों के, जिसके सम्बन्ध में ऐसे विधान मण्डल को विधि बनाने की शक्ति है, अधिकरणों द्वारा न्याय निर्णयन या विचारण के लिए विधि बना सकता है । [ अनुच्छेद 323-ख]
निर्वाचन
संसद और राज्य विधानमण्डल के सभी निर्वाचनों और राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति के पदों के निर्वाचन के लिए निर्वाचक नामावली तैयार करने, के संचालन का अधीक्षण, निदेशन और नियंत्रण भारत के निर्वाचन आयोग में निहित है। [अनुच्छेद 324]
कोई व्यक्ति धर्म, मूलवंश, जाति या लिंग के आधार पर निर्वाचक नामावली में सम्मिलित किये जाने के लिए अपात्र नहीं है या विशेष निर्वाचक नामावली में सम्मिलित किये जाने का दावा नहीं करेगा। [अनुच्छेद 325]
लोक सभा और राज्यों की विधान सभाओं के लिए निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर किये जाते हैं। [अनुच्छेद 326]
अनुच्छेद 327 या अनुच्छेद 328 के अधीन बनाई गई या बनाई जाने के लिए तात्पर्यित किसी विधि की विधिमान्यता, जो निर्वाचन-क्षेत्रों के परिसीमन या ऐसे निर्वाचन, क्षेत्रों के आवण्टन से सम्बन्धित है, किसी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं की जाएगी। संसद के प्रत्येक सदन या राज्य विधान मण्डल के सदन या प्रत्येक सदन के लिए किसी निर्वाचन को निर्वाचन अर्जी द्वारा प्रश्नगत किया जाएगा, अन्यथा नहीं। [अनुच्छेद 329]
अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों के लिए स्थानों का आरक्षण
स्थान लोक सभा में अनुसूचित जातियों, असम के स्वशासी जिलों की अनुसूचित जातियों को छोड़कर अन्य अनुसूचित जन जातियों और असम के स्वशासी जिलों की अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित किये किए गए हैं। [अनुच्छेद 330]
राष्ट्रपति लोक सभा में आंग्ल-भारतीय समुदाय के दो से अनधिक सदस्यों को नाम निर्देशित करता है। अनुच्छेद 331]
राज्य सरकारें अनुसूचित जातियों और असम के स्वशासी जिलों में अनुसूचित जनजातियों को छोड़कर अन्य अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों की पर्याप्त संख्या आरक्षित करती है। [अनुच्छेद 332]
राज्यपाल विधानसभा में आंग्ल-भारतीय समुदाय के एक सदस्य को नाम निर्देशित करता है। [अनुच्छेद 333]
सेवाओं और पदों के लिये अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों के दावों पर विचार किया जा सकता है। [अनुच्छेद 335]
विशेष उपबन्ध आंग्ल भारतीय समुदाय के फायदे के लिये शैक्षणिक अनुदान के सम्बन्ध में किया गया है। [अनुच्छेद 337]
एक पृथक राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग है। उसे अपनी प्रक्रिया को विनियमित करने की शक्ति है। [अनुच्छेद 338]
एक पृथक राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग है। उसे अपनी प्रक्रिया को विनियमित करने की शक्ति है। [अनुच्छेद 338क]
एक पृथक राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग होगा। उसे अपनी प्रक्रिया को विनियमित करने की शक्ति होगी। [अनुच्छेद 338ख]
राज्यों में अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन और अनुसूचित जातियों के कल्याण पर संघ के नियंत्रण के लिए, उपबन्ध किया गया है। [अनुच्छेद 339]
राष्ट्रपति भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग की दशाओं का अन्वेषण करने के लिये आयोग की नियुक्ति के सम्बन्ध में संघ सरकार को रिपोर्ट देने के लिये आयोग की नियुक्ति करता है । [ अनुच्छेद 340]
राष्ट्रपति राज्यों तथा संघ राज्यक्षेत्रों के लिए तथा राज्यों की स्थिति में उनके राज्यपालों से परामर्श करके लोक अधिसूचना द्वारा जातियों, मूल वंशों या जनजातियों या जातियों, मूल वंशों या जनजातियों के भागों या समूहों को अनुसूचित जाति होना विनिर्दिष्ट कर सकता है। [अनुच्छेद 341]
राष्ट्रपति राज्यों तथा संघ राज्यक्षेत्रों के लिए तथा राज्यों की स्थिति में उनके राज्यपालों से परामर्श करने के पश्चात् लोक अधिसूचना द्वारा जनजातियों या जनजाति समुदायों या अन्य जातियों या जनजाति समुदायों के भागों के भीतर समूहों को अनुसूचित जनजाति होना विनिर्दिष्ट कर सकता है। [अनुच्छेद 342]
राष्ट्रपति राज्यों तथा संघ राज्यक्षेत्रों के लिए तथा राज्यों की स्थिति में उनके राज्यपालों से परामर्श करने के पश्चात् लोक अधिसूचना द्वारा सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों को विनिर्दिष्ट कर सकेगा, जो इस संविधान के प्रयोजनों के लिए, यथास्थिति, उस राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के संबंध में सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ा वर्ग होने के रूप में समझे जाएंगे। [अनुच्छेद 342क]
संघ की भाषा
संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी है। [अनुच्छेद 343]
राज्य की राजभाषा या राजभाषायें वह होंगी, जैसा कि राज्य विधानमंडल अंगीकार करे। [ अनुच्छेद 345]
अंग्रेजी भाषा का प्रयोग उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में किया जायेगा। [अनुच्छेद 348] भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए विशेष अधिकारियों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। [अनुच्छेद 350-ख]
आपात उपबन्ध
राष्ट्रपति को उस मामले में आपात की घोषणा करने की शक्ति है, जब भारत की सुरक्षा युद्ध या बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह द्वारा खतरे में है । [अनुच्छेद 352]
आपात की उद्घोषणा के दौरान संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार राज्यों पर होगा और संसद को संघ या अधिकारियों और प्राधिकारियों को शक्ति प्रदान करते हुये और पर कर्तव्य अधिरोपित करते हुये विधि निर्मित करने की शक्ति होगी। [अनुच्छेद 353]
जब आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में है, तब राष्ट्रपति राजस्वों के वितरण से सम्बन्धित उपबन्धों को लागू करने का निदेश दे सकता है। [अनुच्छेद 314]
बाह्य आक्रमण और आन्तरिक अशान्ति से राज्य की संरक्षा करना संघ का कर्तव्य है। [अनुच्छेद 355]
यदि राष्ट्रपति को राज्य को राज्यपाल से रिपोर्ट की प्राप्ति पर या अन्यथा यह समाधान हो जाता है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है, जिसमें राज्य का शासन नहीं चलाया जा सकता, तो राष्ट्रपति, यदि ठीक समझता है, उस राज्य के लिये राज्य आपात की घोषणा करता है। [अनुच्छेद 356]
अनुच्छेद 19 के उपबन्ध अर्थात् वाक् की स्वतंत्रता से सम्बन्धित अधिकारों का संरक्षण आपात के दौरान निलम्बित किया जा सकता है। [अनुच्छेद 358]
प्रकीर्ण उपबन्ध
राष्ट्रपति या राज्य का राज्यपाल अपने पद की शक्तियों के प्रयोग और कर्तव्यों के पालन के लिये या उन शक्तियों का प्रयोग और कर्तव्यों का पालन करते हुये उसके द्वारा किये गये या किये जाने के लिये तात्पर्यत किसी कार्य के लिये किसी न्यायालय का उत्तरदायी नहीं है। [अनुच्छेद 361]
उपबन्ध संसद और राज्य विधानमण्डलों की कार्यवाहियों के प्रकाशन के संरक्षण के लिये बनाया गया
है । [ अनुच्छेद 361- क]
राजनीतिक दल का कोई निरर्हित सदस्य किसी लाभकारी राजनीतिक पद को धारण करने से निरर्हित होगा । [ अनुच्छेद 361 – ख]
यदि कोई राज्य संघ द्वारा दिये गये निर्देशों का पालन करने या उनको प्रभावी करने में असफल रहता है, तो राष्ट्रपति यह अवधारित करता है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है, जिसमें उस राज्य का शासन नहीं चलाया जा सकता। [ अनुच्छेद 365]
संविधान का संशोधन
संसद को संविधान का संशोधन करने की शक्ति है । [ अनुच्छेद 368 ]
जम्मू कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में विशेष उपबन्ध
अनुच्छेद 238 के उपबन्ध जम्मू-कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में लागू नहीं होंगे और संसद की शक्ति कुछ अस्थायी मामलों पर राज्य के लिये विधि निर्मित करने तक सीमित है। [अनुच्छेद 370]
कुछ राज्यों के लिये विशेष उपबन्ध
विशेष उपबन्ध क्रमशः अनुच्छेद 371 के अधीन महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों, 371क के अधीन नागालैण्ड राज्य, अनुच्छेद 371ख के अधीन असम राज्य, अनुच्छेद 371ग के अधीन मणिपुर राज्य, अनुच्छेद 371घ के अधीन आन्ध्र प्रदेश राज्य, अनुच्छेद 371च के अधीन सिक्किम राज्य, अनुच्छेद 371छ के अधीन मिजोरम राज्य, अनुच्छेद 371ज के अधीन अरुणाचल प्रदेश राज्य, अनुच्छेद 371झ के अधीन गोवा राज्य और अनुच्छेद 371ञ के अधीन कर्नाटक राज्य के लिये निर्मित किये गये हैं ।
राष्ट्रपति की विशेष शक्ति
राष्ट्रपति कुछ मामलों में निवारक निरोध के अधीन व्यक्तियों के सम्बन्ध में आदेश करने के लिये शक्ति धारण करता है। [अनुच्छेद 373]
संविधान की अनुसूचियाँ
प्रथम अनुसूची – राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों का प्रादेशिक सीमांकन (28 राज्य और 8 संघ राज्य क्षेत्र)
द्वितीय अनुसूची – राष्ट्रपति और राज्यों के राज्यपालों के बारे में उपबन्ध ।
तृतीय अनुसूची – शपथ या प्रतिज्ञान के प्ररूप ।
चौथी अनुसूची – राज्य सभा में स्थानों का आवण्टन ।
पाँचवी अनुसूची – अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जातियों के प्रशासन और नियंत्रण के बारे में उपबन्ध।
छठवीं अनुसूची – असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्यों में जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन के बारे में उपबन्ध ।
सातवीं अनुसूची – सूची I-संघ सूची, सूची II-राज्य सूची, सूची III-समवर्ती सूची (संघ और राज्यों के बीच विधायी विषयों का वितरण)
आठवीं अनुसूची – भाषायें ।
नौवीं अनुसूची – कुछ अधिनियमों और विनियमों की विधिमान्यता ।
दसवीं अनुसूची – दल बदल के आधार पर निरर्हरता के बारे में उपबन्ध ।
ग्यारहवीं अनुसूची – पंचायतों की शक्तियाँ, प्राधिकार और उत्तरदायित्व ।
बारहवीं अनुसूची – नगरपालिकाओं आदि की शक्तियां, प्राधिकार और उत्तरदायित्व ।
Nice information sir Ji
Very very Thanks for this post which provide knowledge about constitution.
भारतीय संविधान की जानकारी देनेके लिये थन्यवाद।
भारतीय संविधान की जानकारी देनेके लिये थन्यवाद।
Very nice
Realy bahut badhiya sambhidhan hai Hamada.dhanyabad. spl team
Beautiful. Thanks sir 🙏.
Very good
Good information thank you
Thanks sir for giving information about the lndian constitution which increase my knowledge